
चुनावी राजनीति कहीं से भी ऊपर के संतुलन से अलग नहीं है। बल्कि चुनावी राजनीति में प्रोडक्ट की क्वॉलिटी और पैकेजिंग का एक सामान्य प्रोडक्ट की तुलना में बहुत ज्यादा योगदान होता है और ये काम एक सामान्य सामान बेचने की तुलना में कहीं बहुत ही कठिन काम है। राजनीति में प्रोडक्ट की क्वॉलिटी विकास के पैमाने पर मापी जाती है; तो पैकेजिंग को भावनात्मक अपील से परखा जाता है। जिस भी राजनैतिक दल ने इस सन्तुलन को हाशिल करने में सफलता प्राप्त की है, वह हिट है और आगे भी हिट रहेगा। भाजपा ने यही किया और परिणाम सबके सामने है। प्रचण्ड बहुमत। विकास उसक्के प्रोडक्ट का गुणवत्त्ता था तो राष्ट्रीयता का भाव उसकी पैकेजिंग का पैमाना। (इसे आप अपने बनाए राष्ट्रवाद से सीमित परिभाषा से ना जोडें)।
भाजपा इस बात को पहले ही दिन से समझ रही थी कि वो विकास का वायदा कर चुनाव जीतकर आई है और उसने विकास को अपना युएसपी बना लिया। यदि सरकार विकास के मोर्चे पर विफल रही तो अगला चुनाव मुश्किल हो जाएगा। उसके डिफरेन्ट स्टेकहोल्डर्स उसका जीना मुहाल कर देंगे। इसलिए भाजपा जिस दिन से सरकार में आई उसी दिन से इस बात का भरपूर प्रयास किया कि विकास का प्रयास अन्तिम व्यक्ति तक पहुँचे और ये पहुंचे ही नहीं बल्कि लोगों को पता भी चले। और लगातार प्रयास से भाजपा इस काम में सफल भी रही है। परन्तु ऐसा नहीं है कि भाजपा ने प्लेन वनिला फ्लेवर में सिर्फ विकास ही बेचा है बल्कि इस विकास को राष्ट्रीयता बोध के भावनात्मक बन्धन (रैपर) में बाँधकर बेचा भी है। आप ही बताइए उच्च गुणवत्ता का सामान और राष्ट्रीयता का उच्च भाव भला किसे पसन्द नहीं होगा?
लेकिन इस खेल की सबसे महत्त्वपूर्ण बात ये है कि भाजपा ने अपने प्रतिद्वन्दियों और मीडिया को इसकी कानो-कान भनक भी नहीं लगने दी कि वो बेच क्या रही है परन्तु जनता बहुत अच्छी तरह से जानती थी कि भाजपा बेच क्या रही है? इस हेतु को प्राप्त करने के लिए लगातार प्रधानमंत्री द्वारा मीडिया का बहिष्कार किया गया और मीडिया इस बहिष्कार से नाराज होकर भावुक हो गई। वो पुरी तरह से इन्टैन्जिबल इश्युज जैसे कि लोकतंत्र खतरे में है, देश में तानाशाही है, फिर से चुनाव नहीं होगा आदि विमर्श तय करने में लगी रही और अपने ड्राइंगरूम से बाहर न निकलने के स्वभाव के कारण धरातल की सच्चाई को देख तक नहीं पाई। इन इश्युज को इतने जोरशोर से उठाया गया कि विपक्ष भी इसे ही असली मुद्दा समझता रहा। जबकि सरकार अपने विकास कार्यों की डिलिवरी के द्वारा धरातल पर साइलेंटली दूसरा ही विमर्श मजबूत कर रही थी। ऐसा नहीं है कि सरकार ने बिल्कुल ही चुपचाप रहकर काम किया। उसने समय-समय पर गियर भी बदला और अपने स्टेकहोल्डर्स तक अपनी बात भी पहुंचाई। मीडिया में ये सारी बातें आईं भी परन्तु मीडिया और विपक्ष इसे कुछ और ही समझता रहा।
अपने काम को बहुत लोगों तक पहुंचाने के बाद जब भाजपा ने चुनाव से तकरीबन एक साल पहले ये कहना शुरू किया कि यदि मोदी नहीं तो फिर कौन? तो इसे मीडिया ने मोदी की कमजोरी समझा परन्तु भाजपा तो गियर बदल रही थी। भाजपा आम जनता से कह रही थी कि हमारा एसेसमेंट करो हमारे चार साल के कामों के आधार पर और दूसरों से तुलना करो। जनता बिल्कुल यही करने लगी। तुलना। एक साल तक जनता तुलना करती रही और उस तुलना में अन्तिम दिन तक मोदी के बराबरी कोई दिखा ही नहीं। दूसरी ओर एक खास खाँचे में सोचने के स्वभाव के कारण मीडिया और विपक्ष हमेशा ही भ्रम में बना रहा कि भाजपा ने अपना कोई भी वायदा पुरा नहीं किया। जबकि भाजपा अपने योजनाओं जैसे कि शौचालय, घर, आयुष्मान भारत व उज्जवला आदि से एक समानान्तर विमर्श को अपने कार्यकर्त्ताओं द्वारा मजबूत करती रही। और परिणाम ये हुआ कि भाजपा विकास बेंचती रही थी और विपक्ष राष्ट्रवाद का रैपर में उलझा रहा। और जनता ने प्रोडक्ट की गुणवत्ता और पैकेजिंग के आधार पर प्रोडक्ट खरीद लिया।
हैरानी की बात है कि इतने बड़े मैनडेट के बाद भी मीडिया और विपक्ष को सच नहीं दिख रहा है जबकि सब जानते हैं कि भावनात्मक मुद्दों के सहारे थोड़ा बहुत वोट तो इक्कठा किया जा सकता है परन्तु प्रचण्ड बहुमत नहीं। प्रचण्ड बहुमत के लिए एक आधार और भाव दोनों ही चाहिए। दूसरी बात, बिना विकास के उदात्त राष्ट्रीयता का भाव खोखला नजर आता है। दोनों का सन्तुलन ही वोटों को कॉन्सोलिडेट कर सकता है और भाजपा ने दोनों का ही बखुबी इस्तेमाल किया है।
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एक बेहतरीन लेख.....
ReplyDeleteसादर धन्यवाद
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