एक ही थैले में भरे आँसू और मुस्कान।
- निदा फाज़ली
निदा फाज़ली ने इन दो पँक्तियों में क्या कुछ नहीं कह दिया है! कुछ भी तो बाकी नहीं है! जीवन का सार है। शायद सारा। घटना एक ही होती है और हर आदमी अपने-अपने हिसाब से उसे अच्छा या बुरा कहता है और इस तरह से उस घटना के अच्छा या बुरा होने को लेकर सोचना ही मुश्किल हो जाता है। क्या नैतिकता, क्या तर्क! किसी भी सांचे में डालना या कहीं कसना मुमकिन ही नहीं दिखता।
रवीश कुमार को रमन मैग्सेसे पुरस्कार क्या मिला, चारों तरफ भावनाओं का ज्वार उफान मार रहा है! यह रवीश कुमार के काम को अंतराराष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृति मिली है, जहाँ रवीश कुमार को इसके लिए सिर्फ बधाई मिलनी चाहिए। बस! वहीं कुछ लोग खुशी में पागल हुए जा रहे हैं तो कुछ लोग गम दीवाने!
कारण क्या है इसका? यही ना कि अन्य सभी पुरस्कारों की तरह इससे भी कुछ विवाद जुड़ा हुआ है! इस में नया क्या है? या फिर इसलिए कि रवीश हमेशा फॉल्ट लाइन पर खड़े नजर आते हैं! पर ये तो दृष्टिकोण और आपकी लाइन पर भी तो निर्भर करता है। खैर। अभी दूसरी बात।
दुनिया के इतिहास में एडोल्फ हिटलर एक ऐसा खलनायक है जिसकी सभी भर्त्सना करते हैं। और ठीक ही करते हैं। कर्म ही कुछ ऐसा था। परन्तु क्या ये नियम है? या फिर नियम पक्ष और पालों को देखकर बनाया या लागू किया जाता है? इतिहास तो यही कहता है कि नियम कुछ नहीं होता है। यदि कुछ महत्त्वपूर्ण होता है तो व्यक्ति या वह व्यक्ति किस पाले में खड़ा है? तो क्या एडोल्फ हिटलर गलत पाले में खड़ा था? शायद! उस कालखण्ड को देखकर निर्यण लेना कि क्या सही है और क्या गलत; बहुत ही मुश्किल है। परन्तु ये जरूर लगता है कि यदि एडोल्फ हिटलर ने छवि को पॉलिश करने के लिए एक पुरस्कार शुरू कर दिया होता और दुनिया की किसी एक बडी ताकत को अपने पाले में रखा होता तो शायद आज लोग हिल्टर का नाम बडे सम्मान के साथ लेते। यकीन नहीं होता ना! रमन मैग्सेसे पुरस्कार को ही देख लीजिए। यदि रमन मैग्सेसे के साथ सीआईए नहीं होती तो उन्हें आज हिटलर की ही तरह एक नरसंहारक के रूप में ही याद किया जाता। यह अजीबोगरीब लगता तो है परन्तु अंतरराष्ट्रीय कूटनीति का एक क्रूर सत्य है। आज कोई भी रमन मैग्सेसे के उन काले अध्यायों को याद नहीं करता। क्यों? क्योंकि इस पुरस्कार के द्वारा रमन मैग्सेसे का मतलब ही बदल दिया गया और शायद कुछ सौ साल बाद इतिहास का वो पन्ना ही मिटा दिया जाए!
एल्फ्रेड नोबल को भी खुद से बहुत शिकायतें थीं। उन्हें शिकायत थी कि उन्होंने हथियारों की ट्रेडिंग से पैसा कमाया था। उनका ये गिल्ट उनके अन्दर इतना अधिक था कि उन्होंने प्रायश्चित के लिए अपनी कमाई का एक हिस्सा मानवता के लिए खर्च करने का निर्णय लिया और इसके लिए उन्होंने किसी समाज सेवा करने वाली संस्थान का निर्माण नहीं किया बल्कि एक पुरस्कार को स्थापित किया जो इनके गिल्ट को कम कर सके (छवि को बेहतर बना सके)। परन्तु उनका ये कार्य उनके भाव को नहीं बल्कि स्वभाव को दर्शाता है और स्वभाव ऐसी चीज है कि इंसान लाख कोशिश करे पर साथ नहीं छोडता है। पर सवाल ये खड़ा होता है कि उन्हें अपनी छवि ठीक करने की क्या जरुरत थी? शायद उन्हें अपनी छवि ठीक नहीं बल्कि एक नई छवि बनाने की महत्त्वाकांक्षा थी कि ‘एको अहं द्वितीयो नास्ति’।
वैसे ये गलत भी नहीं है। स्वयं के महत्त्वपूर्ण होने का भाव शायद लम्बे समय तक खेलते रहने के लिए बल देता है।
रमन मैग्सेसे पुरस्कार से ही जुड़ी एक दूसरी परन्तु व्यक्तिगत बात भी है। ये संभवतः 2002 के जुलाई या अगस्त बात है जब नया-नया ही दिल्ली आया था कि डॉ संदीप पांडेय का नाम रमन मैग्सेसे पुरस्कार के लिए घोषित हुआ था। अखबारों से ये मुझे भी खबर मिल चुकी थी परन्तु पिताजी ने फोन पर इस बात पर विशेष जोर देकर बताया कि वे बलिया के ही हैं। मध्यमवर्गीय आकांक्षा! जब ये खबर डॉ संदीप पांडेय तक पहुंची तो उनके अंदर का बलिया का खून उबाल मारा और रमन मैग्सेसे का सीआईए से संबंधित होने का कारण देकर उन्होंने पुरस्कार स्वीकार करने से साफ मना कर दिया। बाद पता चला कि फिलिपीन्स में इस पर कुछ विवाद भी हुआ था। खैर बाद में दबावों में आकर उन्होंने पुरस्कार स्वीकार तो कर लिया परन्तु पुरस्कार राशि को स्वीकार नहीं किया। विदित हो कि वे खुद को गाँधीवादी मानते हैं जबकि दुनिया व सरकार उनको मार्क्सवादी मानती और बहुत सारे लोग नक्सलवादी! जी वही, जिन्हें आज अर्बन नक्सलाइट कहा जाता है। बहरहाल।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि नोबेल और रमन मैग्सेसे जैसे अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों ने कुछ बहुत ही महत्वपूर्ण कार्यों और लोगों को आमजन के सामने लाया है और इन महत्वपूर्ण योगदानों के लिए ये सभी संस्थाएँ बधाई के पात्र हैं। नोबेल पुरस्कार के मामले में यदि शान्ति के पुरस्कारों को छोड दिया जाए तो बाकी सभी कटेगरी के पुरस्कारों ने निःसंदेह रूप से विशेष प्रतिभाओं को ही सम्मानित किया है और यह अपने आप में बहुत ही महत्वपूर्ण है।
विज्ञान का क्षेत्र हो या फिर साहित्य, मेडीसिन या फिर अर्थशास्त्र, किसी भी पुरस्कृत विद्वान के योगदान पर कोई प्रश्न खडा नहीं कर सकता। इन सभी विद्वानों का योगदान अभूतपूर्व है। कदाचित ये संभव है कि आप इन विद्वानों के राजनैतिक या सामाजिक विचारों से असहमत हो सकते हैं। हो सकता है उनका व्यक्तिगत जीवन विवादास्पद हो परन्तु उनके योगदानों को चाहकर भी नहीं नकारा जा सकता। अमर्त्यसेन हों या वी एस नायपॉल या फिर कोई अन्य नोबेल लॉरेट, आप इनसे असहमत तो हो सकते हैं परन्तु इन सभी ने अपनी विधा को नया आयाम दिया है जो मानवता के हितों को ही आगे बढाने में सहयोगी है।
नोबेल पुरस्कार की तरह ही रमन मैग्सेसे पुरस्कार ने भी कुछ बहुत ही महत्वपूर्ण कार्यों को समाज में स्थापित करने का काम किया है। सोनम वांगचूक हों या हरीश हाँडे या फिर दीप जोशी, इनका योगदान भारतीय समाज के लिए महत्वपूर्ण है। इन पुरस्कारों से चाहे कितना ही विवाद जुडा हो परन्तु इनका योगदान उतना ही महत्वपूर्ण है।
रवीश कुमार हो सकता है आपको उस पक्ष में खडा दिखाई दे रहे हों जो पक्ष आपको अपना या फिर गलत लगता है; रवीश भले ही कई मुद्दों पर स्ट्रेटेजिक चुप्पी साध लेते हों या फिर कुछ मुद्दों को तूल देते हों; वह भले ही नैतिक स्तर पर कमजोर दिखते हों (जोकि मानवीय है) परन्तु आप उनकी आवाज को इग्नोर नहीं कर सकते हैं और यही उनकी कमाई है। और ये सब उन्हें विरासत में नहीं मिला है बल्कि ये उनकी मेहनत की मजदूरी है। इसलिए बधाई तो बनती है।
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