
पिछले कुछ सालों से ये स्पष्ट होता जा रहा था कि कॉग्रेस ने नेतृत्व की नई पौध में निवेश करने के बदले पुराने नेताओं पर ही विश्वास करने का रवैया बना लिया है। उसी रवैया के कारण राहुल गाँधी को भी अंततः कॉग्रेस अध्यक्ष पद से मुक्ति लेना पड़ा था। संभावना है कि ज्योतिरादित्य के बाद मध्यप्रदेश ही में अजय सिंह, राजस्थान में सचिन पायलट, महाराष्ट्र में मिलिंद देवड़ा और उत्तर प्रदेश में जतिन प्रसाद भी कॉग्रेस के पुराने वटवृक्षों से तंग आकर अपने लिए नया रास्ता चुन लें! यदि ऐसा होता है तो कॉग्रेस में राहुल गाँधी के लिए राजनीतिक संभावनाएँ बहुत ही सीमित रह जाएंगी।
ज्योतिरादित्य के इस निर्णय ने कॉग्रेस में एक तुफान तो खड़ा कर ही दिया है परन्तु इस तुफान से भाजपा भी अछूती नहीं रह पाएगी। जहाँ ज्योतिरादित्य ने कॉग्रेस के युवा नेताओं के अन्दर की यथास्तिथि बनाए रखने की मानसिक इनर्सिया को तोड़कर उनके लिए कॉग्रेस छोड़ने के विकल्प को आकर्षक बना दिया है तो वहीं भाजपा के कैडर पर भी इसका दूरगामी असर पड़ना सुनिश्चित है। प्रभात झा जैसे बड़े नेता अभी से ज्योतिरादित्य के विरोध में आ गए हैं तो राजनैतिक परम्परा का पालन करते हुए कॉग्रेस के नेता एवं कार्यकर्ता सिंधिया परिवार के लिए मर्सियागान शुरू कर चुके हैं। वहीं भाजपा समर्थक बहुत ही प्रसन्न हैं। हालाँकि आज जब राजनीति में शुचिता और अवसरवादिता समानार्थी हो गए हैं, इस मर्शियागान और प्रसन्नता का कोई मतलब नहीं है। आज राजनीति में सब कुछ रिस्क और रिटर्न का ट्रेड ऑफ भर है।
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