तीर्थयात्राएं: तब और अब

तार्किक से तार्किक व्यक्ति भी तर्क करना कुतर्क से ही प्रारम्भ करता है। फिर दोनों के बीच की भिन्नता को समझकर तर्क के कला में पारंगत होता है। हालांकि कि व्यक्ति कई बार पुरानी आदत दुहराने भी लगता है। वैसे भी मंडल साहब तो मंडल साहब हैं। उनका लेवल ही अलग है।

खैर!

पहले लोग बुढ़ापे में ही तीर्थ करने की सोचते थे। उसका कारण ये नहीं था कि उन बुजुर्ग तीर्थ यात्रियों को ये लगता हो कि इस तीर्थयात्रा मात्र से उन्हें मोक्ष मिल जाएगा! नहीं, ऐसा नहीं था। उन्हें पता था कि इस तीर्थयात्रा से उनके द्वारा किए कर्मों का जो बोझ है वो कुछ हद तक उनके मन से उतर जाएगा। यही समस्त धार्मिक कर्मकाण्डों की अन्तिम परिणिति है। और यदि ये ना हो तो दुनिया में पागलखानों की बाढ़ आ जाए! साथ ही लोगों को पूर्ण विश्वास है कि इन धार्मिक कार्यों से उनका आने वाला समय पहले से कुछ अच्छा हो जाएगा! इसलिए समाज को आशान्वित व संतुलित रखने के लिए धर्म भी आवश्यक है; तीर्थ भी आवश्यक है और थोड़ा बहुत कर्मकाण्ड भी आवश्यक है।

पुरी दुनिया में सैकड़ों सालों में लोगों ने सीख लिया था कि तीर्थयात्राएं दुष्कर हैं और बहुत ही श्रम-साध्य, खर्चीली तथा सालों का समय मांगती थीं। साथ ही चोरों-हत्यारों व खतरनाक जीवों के हमले में मारे जाने के खतरों से भरपूर भी। बहुत ही कम लोगों के जीवित लौटने की संभावना होती थी। यही नहीं बल्कि कम आयु में बहुत कम लोग पर्याप्त धन का संग्रह कर पाते थे और साथ ही परिवार का उत्तरदायित्व भी होता था। अतः बुढ़ापे में तीर्थयात्रा का उनका निर्णय व्यवहारिक अधिक था। हर तीर्थयात्री ये मानकर यात्रा प्रारम्भ करता था वह लौट नहीं आएगा। इसलिए पारिवारिक मोह-माया से मुक्त भी होता था। यही कारण था कि श्री काशी जी, मथुरा जी, अयोध्या जी व उज्जैन आदि तीर्थस्थानों पर वृद्ध भक्तों की बहुत बड़ी संख्या वास करती थी। जो इन तीर्थों तक पहुंच गया वो वापस जाना नहीं चाहता था। क्योंकि जीवन में पाने की संभवतः कोई इच्छा ही नहीं होती थी। सब कुछ पीछे छोड़ कर तीर्थ करने निकले थे। साथ ही उन्हें उस भय से मुक्ति भी मिल जाती थी कि लोग क्या कहेंगे कि इसे मोक्ष नहीं मिला! अतः मोक्ष मिले ना मिले, तोष का भाव रहता था। किन्तु आज ऐसा नहीं। आज बहुत कम खर्च व समय में हर व्यक्ति सुरक्षित तीर्थ कर वापस लौट आता है। आप सप्ताह में चारों धामों की यात्रा पूर्ण कर सकते हैं।

इसलिए इन दुर्भाग्यपूर्ण दुर्घटनाओं को मोक्ष से नहीं बल्कि व्यवस्था से जोड़कर देखिए। ये व्यक्ति व व्यवस्था दोनों का असफलता है। मोक्ष नहीं।

और हाॅं! हर बार सरकार से ही प्रश्न मत करिए। कभी व्यक्ति और व्यवस्था से प्रश्न करिए। सरकार भी एक व्यवस्था ही है और हर व्यवस्था व्यक्ति ही खड़े करते व चलाते हैं। लेकिन ऐसा करने से राजनीति करने का स्कोप समाप्त हो जाता है!

राजीव उपाध्याय

1 comment:

  1. अब उधार करके जाते है और वापिस लौटकर पक्का चुका देने को कहते हैं😅

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