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फ्रैक्चर, प्लॉस्टर और चुनाव

फ्रैक्चर, प्लॉस्टर और चुनाव Election
अभी मैं उहापोह की स्थिति में पेंडुलम की तरह डोल ही रहा था कि चच्चा हाँफते हुए कहीं चले जा रहे थे। देखकर लगा कि चिढ़े हुए हैं। जैसे उन्होंने कोई भदइला आम जेठ के महीने में खा लिए हों और जहर की तरह दाँत से ज्यादा मन एकदम ही खट्टा हो गया हो। जब मैंने उनकी गाड़ी को अपने स्टेशन पर रुकते नहीं देखा तो मैंने चच्चा को जोर से हॉर्न देते हुए बोला,

‘अरे चच्चा! कहाँ रफ्फू-चक्कर हुए फिर रहे हैं। पैर की चकरघिरन्नी को थोड़ी देर के लिए मेरे स्टॉप पर रोकिए तो सही! क्या पता कोई सवारी ही मिल जाए?’

चच्चा पहले तो गच्चा खा गए कि बोला किसने लेकिन जैसे ही उनकी याददाश्त वापस लौटी तो खखार कर बोले, ‘तुम हो बच्चा! मैं समझा कि कोई और बोल रहा है?’

चोलबे ना

चच्चा खीस से एकमुस्त लाल-पीला हो भुनभुनाए जा रहे थे मगर बोल कुछ भी नहीं रहे थे। मतलब एकदम चुप्प! बहुत देर तक उनका भ्रमर गान सुनने के बाद जब मेरे अन्दर का कीड़ा कुलबुलाने लगा। अन्त में वो अदभुत परन्तु सुदर्शन कीड़ा थककर बाहर निकल ही पड़ा।

‘चच्चा! कुछ बोलोगे भी कि बस गाते ही रहोगे? मेरे कान में शहनाई बजने लगी है; पकड़कर शादी करा दूँगा आपकी अब!’

चच्चा हैरान होकर मेरी तरफ देखने लगे। जब मैंने एक बुद्धिजीवी की तरह प्रश्नात्मक मुद्रा में उनकी ओर देखा तो वो पूछे

‘मतलब तुमने सुन ही लिया जो मैं बोल रहा था?’

मैंने वापसी की बस पकड़कर बोला, ‘आपकी चीख सुनाई नहीं दी; बस सूँघा हूँ! अब बोल भी दीजिए नहीं तो बदहजमी हो जाएगी’

रवीश भाई, कन्हैया और मेरा सपना

कल रवीश भाई सपने में आए थे और कहने लगे, ‘वत्स उठो, जागो, कन्हैया को गरीब मानो और जब तक सभी उसे गरीब ना मान लें तब तक सबको मनाते रहो।’ 

मैं ठहरा मोटी बुद्धि का आदमी और वो भी नवाज शरीफ के देहाती औरत के जैसा। मगज में कुछ घुसा ही नहीं तो समझ कहाँ से आता। पहले तो यकीन ही नहीं हुआ मगर रवीश भाई तो साक्षात सामने खड़े मुस्करा रहे थे। झक मार कर यकीन हो चला तो मैंने सिर खुजलाते हुए पूछ मारा, ‘खैर ऊ तो ठीक है भाईजान! हम मजूर आदमी हैं आप जो कहेंगे सब करेंगे परन्तु मन में कुछ सवाल है।’ 

गाली ही आशीर्वाद है

मुझे भाषण देने की आदत जो है कि लोग देखा नहीं कि बस उड़ेलना शुरू कर देता हूँ। बस कुछ दोस्त मिल गये तो मैं लग गया झाड़ने। खैर झाड़ते वक्त ये देख लेता हूँ कि सामने कौन है। खैर दोस्तों को भाषण पान करा रहा था (वैसे घर पर तो घरवीर बनने में यकीन रखता हूँ। अपना-अपना किस्सा है।) कि चच्चा जाने कहाँ से अवतरित हो गये? शायद थोड़ी देर मेरे महाज्ञान को सुना होगा फिर कान पकड़कर बोले -
“मतलब कर दिये ना नाजियों वाली बात। अरे भाई उन लोगों ने पुरस्कार लौटाने की घोषणा कर दी इसका मतलब ये थोड़े ही होता है कि वो पुरस्कार लौटा दें? बोलो तुम अपने माँ-बाप को बचपन में डराते थे कि नहीं अपनी बात मनवाने के लिए।”
चच्चा हमारे पूरे धर्मनिरपेक्ष पुरस्कृत महाविद्वान हैं। खैर हैं तो हैं; हमें क्या? हम भी कम विद्वान थोड़े ही हैं। तो मैंने भी दोस्तों को आँख मारते हुए (बहुत रियाज किया है) अपनी गांडीव से तीर फेंका
“अरे! हम तो पहले रोते थे जब माँ बाबूजी नहीं मानते थे तब डराने के लिए कुदते-फांदते थे तब कहीं जाकर हडताल पर जाते थे। ये तो ना ही रोए, ना ही कूदे-फाँदे और हड़ताल भी नहीं किए। सीधे तलाक पर पहुंच गये। ऐसे कहाँ मजा आता है? थोड़ा मसाला पकना चाहिए ना तभी तो सब्जी का मजा आता है। खैर आपकी तो बहुत ऊंची पकड़ है, इनको थोड़ा समझाइये।”
चच्चा मन थोड़ा कर बोले, “अरे क्या समझाएँ बबुआ उनको? समझा रहे हैं तो सब गाली दे रहे हैं। कुछ तो निठल्ले आरोप भी लगा रहें। एक हम थे कि उनके लिए दिन-रात सेटिंग करते-फिरते थे और एक वो हैं कि ………”
विद्वान लोग अक्सर बातें बीच में छोड़ देते हैं ताकि कल्पनाओं को उड़ान मिल सके और बाद में उन कल्पनाओं को लेकर बयानबाजी और विमर्श के लिए पर्याप्त स्वतंत्रता मिल सके।
मैंने भी सोचा कुछ ज्ञानार्जन किया जाए तो पूछ बैठा, “अच्छा! आप माँ-बाप की बात कर रहे थे तो पहले ये बताइए कि सरकार मां-बाप होती है क्या?”
इतना सुनना था कि झन्ना गए फूलही थरिया की तरह पर कहे बड़े प्यार जैसे प्रेयसी कहती है, “लगता है पूरा गोबर ही रह गये।”
मैं भी गली मैं जैसे सीटी बजाया करता था वैसे पूछे “क्या हुआ? काँहे गुस्सा हो रहे हैं?”
मेरा लहजा और सवाल सुनकर चच्चा पहले मुस्कराए। फिर आसमान में देखते हुए बोले, “तुम सरकार को माँ-बाप समझ रहे हो इसीलिए तो गोबर कह रहा हूँ। सरकार माँ-बाप से भी बढकर होती होती है। वो तो…………”
बीच में ही चुप हो गये और कुछ जैसे याद कर रहे हों इस मुद्रा में चले गये। पर मेरे अन्दर का विद्वान विमर्श प्रारम्भ करने के बाद चुप कैसे रह सकता था,
“अच्छा!!! वो कैसे?”
“भइया तुम रहने दो; तुम्हारी समझ ना आयेगा”, चच्चा दार्शनिक अंदाज में बोले।
“पर लोग तो ब्याज भी माँग रहे हैं और सब लाभ और लागत की भी बात कर रहे हैं ब्याज सहित।”
चच्चा पहले तो कुछ देर चुप रहे फिर उनके अंदर का साधुत्व जागा, “तुम ही बताओ ये कहां का न्याय है कि साधू-संतों से उनका मठ छीन तो रहे ही हैं लोग; मड़ई भी छीनेंगे क्या? अरे भई साधू-सवाधू-जोगी का तो गाली ही आशीर्वाद होता है। तुम समझते नहीं हो!!”
बस चच्चा भी चुप और मैं भी ज्ञानवान हो गया।